:- अवकाश :-
दो महीने से वह किचनर रोड, अपनी मां के घर रहती आई है। महेश ने कहा था, " अलग रहकर सोच लो ।" और यह जानते हुए भी कि 2 साल तक वह सोचने का ही काम करती रही है , उसने उसकी बात मान ली थी। सोच लिया था, दो वर्ष निकल गए हैं तो दो महीने और सही।
पर दो महीने बीतने पर, निष्कर्ष वही का वही है । महेश से बात हो जाए तो निर्णय बदल जाएगा। परसों उससे फोन पर कह दिया था।
" मैं रविवार 10:00 बजे तुमसे मिलने आऊंगी, ठीक रहेगा ? " कहते हुए उसका स्वर जरा भी विचलित नहीं हुआ था।
" हां-हां, जरूर।" महेश ने उत्सुकता तत्परता से कहा था।
" सब बातें तय करनी हैं," उसने कहना शुरू किया था तो महेश ने बाधा दे दी थी।
" मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा," कहकर फोन जल्द ही काट दिया था।
क्या वह पूरी बात सुनने से डर रहा था ? उससे मिले दो महीने हो गए । जिस रात पहले-पहल बात छेड़ी थी, तभी से नहीं मिली ।
उस रात उसने तय किया था, बात और नहीं टाली जा सकती। आज कह देनी होगी , खूब समझा-बुझाकर ,मय प्रस्तावना और उपसंहार के, जिससे शब्दों में खोकर चोट कम महसूस हो । बच्चों के सो जाने पर खाना खाकर बैठक में बैठे , तभी बात शुरू की। थका-थका-सा महेश अख़बार लेकर सोफे पर बैठा था । कुछ देर तो चुपचाप वह उसका क्लांत मुख देखती रही , एक बार सोचा, अभी रहने दे , फिर कह लेगी, फिर कठोर बनकर बोली, " मुझे तुमसे कुछ कहना है।"
महेश ने सुना नहीं।
"महेश ",उसने आवाज ऊंची करके दुहराया , मुझे तुमसे कुछ कहना है।"
"हूं?" महेश ने कहा, पर आंखें अखबार पर से नहीं उठाई।
वह चुप रही।
महेश पढ़ता रहा।
" सुन रहे हो?" कुछ रुक कर उसने फिर कहा । "अ....हां... ।"इस बार महेश ने आंख उठाकर उसकी तरफ एक दफा ताका।
" मुझे तुमसे कुछ कहना है," उसने जल्दी से कहा, जिससे वह दुबारा अखबार में लीन ना हो जाए ।
"कहो", उसने कहा, पर साथ ही आंख दबाकर ऐसे अखबार पढ़ता रहा कि लगे नहीं पढ़ रहा।
बहुत समझा-बुझाकर कहीं जाने वाले बात तब फट पड़ी , "महेश," उसने कहा, मैं समीर से प्यार करती हूं, मुझे तलाक चाहिए ।"
"स..मी..र?"क्षण-भर तो लगा कि महेश अभी भी अखबार से ध्यान नहीं बंटा पा रहा, फिर उसने जोर से कहा, "नाॅन्सेंस,"और अखबार नीचे पटक दिया।
वह चुप रही।
"क्या कह रही हो तुम? यह क्या मजाक हुआ?"
" मजाक! यह तुम्हें मजाक लग रहा है?"इतने दिन तुमने कुछ महसूस नहीं किया?"
उसे लगा , उसका बहुत अपमान हो गया है।
" दो साल से मैं प्रेम और पश्चाताप में जल रहीं हूं । कितनी बार प्रण कर चुकी हूं कि अब उससे नहीं मिलूंगी और हर बार तोड़ बैठी हूं। तुम्हें कुछ भी पता नहीं चला?"
अब महेश ने अपनी निगाहें उसके मुख पर टिका दीं और समझा कि यह मजाक नहीं है।
"यह नहीं हो सकता", वह बुदबुदाया । हृदय में कहीं बहुत भीतर सोया दर्द उठा और बढ़ता गया।
" तुम मुझे और बच्चों को बिल्कुल नहीं चाहतीं?" उसने कहा ।
" यह मैंने नहीं कहा । बच्चे तो मेरे शरीर से जुड़े मेरे ही अंश है और तुमसे भी मैं बहुत स्नेह और प्यार करती हूं, पर मैं मजबूर हूं। मैंने अपने से कितनी लड़ाई की, पर मैं... पर यह मेरे वश से बाहर की बात है । आई एम सॉरी!" अनेक दिनों से सोच सोच कर कुछ ऐसे ही शब्द उसने तैयार किए थे, पर अब वे बिल्कुल सपाट लगे। कमरे में उस भावातिरेक की कमी थी जिसमें वे जड़े जा सकते। उसने सोचा था, महेश ना जाने कितना चंचल और संतप्त हो उठेगा, कहीं रो न दे । तब वह भी रुंधें गले से हाथों में मुख ढांपकर कहेगी... महेश , मैंने तुम्हें प्यार किया है , अब भी करती हूॅं। इसलिए दो वर्ष से अपने को रोकती रही हूॅं, अपने से लड़ती रही हूं, अविरल, निरंतर, पर हर बार मेरी हार हुई है। जैसे मैं दो भागों में विभक्त हूं, हारी हूं अपने ही इस नूतन रुप से। मैं क्या करूं -प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। यह मुझे खींचे लिए जा रहा है । मुझे माफ करो, मैं तुम्हें बहुत दुख दे रही हूं, पर मुझे जाने दो, मुझे जाने ही है, ओह महेश, मैं कुछ नहीं कर सकती।"
"केवल शारीरिक आकर्षण के लिए बच्चों और घरबार को छोड़ने की जरूरत नहीं होती ।" उसने सुना , महेश कह रहा था, " उस पर काबू पाने की कोशिश करनी चाहिए। तुम जानती हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूं।"
"जानती हूं।" उसने अपने को कहते सुना।
पिछले दो वर्षों में अनेक क्षण ऐसे आए हैं जब उसने स्वयं यही सोचा है कि शारीरिक सुख के अलावा इसमें और कुछ नहीं है, पर वे क्षण भी वह भुला नहीं पाती जब समीर के साथ रहकर लगा, शरीर कुछ नहीं है, वे मन- मस्तिक से एक हैं।लगा, उसे स्पर्श किए बगैर , उसके साथ बातें करते या चुप रहकर, वह पूरा जीवन सुख से बिता सकती है। वह जानती है , दोनों सच है । शरीर कभी बहुत नगण्य हो उठता है ,कभी बहुत प्रबल, क्योंकि यह ना वासना है, ना भक्ति और ना दोस्ती। उसने हल्की मुस्कुराहट के साथ सोचा , आज कल हम "प्रेम " के नाम से इतना कराने क्यों लगे हैं। साफ बात यह है कि वह यह प्रेम है ।
महेश उठकर उसके पास आ गया , उसके कंधों पर दोनों हाथ रखकर बोला, " कोई गलती हो गई हो तो कोई बात नहीं। हम उसे भी झेल लेंगे।"
"गलती?"
उसका मन हुआ, कहे- गलती? मैं समीर से प्यार करती हूं, कर चुकी हूं और फिर करना चाहती हूं। इसमें गलती कहीं नहीं है, सुख अवश्य है।" पर उसने कहा नहीं।
"उसके साथ विवाह होते ही सब रोमांच खत्म हो जाएगा । यह टिकाऊ चीज नहीं है।"महेश कहता जा रहा था ।
"जानती हूं ।" उसने फिर कहा ।
यह कौन सा तर्क है कि जो टिकाऊ है , वही निष्पाप है, सुंदर है,महत्वपूर्ण है? टिके चाहें नहीं, वह उसे पूरी तरह पाना चाहती है। वह पुलक, अकारण हंसी, गुब्बारे के समान फूलता-फैलता हृदय, ज्वाला का प्रताप, नगाड़े की धमक, भाप-सा मुक्त अस्तित्व,मूक चिंतन...।
कुछ घंटों में लौटकर आने को मन नहीं चाहता। उसे चाहिए दो-एक वर्ष। फिर चाहे समाप्त ही क्यों ना हो जाए । उसे अजीब सा ख्याल आया, सोचा, कहे -ठीक है, मैं दो वर्ष के लिए चली जाती हूं , फिर लौटा आऊंगी, पर वह जानती है ,यह कहा नहीं जा सकता। तलाक मांगा जा सकता है , अवकाश नहीं। हमारे आपसी संबंध भावावेश सहन कर सकते हैं, युक्ति नहीं। इतनी तर्कसंगत बाद महेश जैसे विवेकशील आदमी को भी तहस-नहस कर देगी।
"बस और कुछ मत कहो । तुम हमें छोड़कर कहीं नहीं जाओगे । चाहो तो दो-तीन महीने किचनर रोड रह आओ। अलग रहकर सोचोगे तो सब ठीक हो जाएगा। दुबारा मिलने पर हम सब कुछ भूल चुके होंगे।" महेश कह रहा था।
इतनी सहृदयता से कौन लड़ सकता है ? वह बच्चों को लेकर 'और सोचने' के लिए मां के घर किचनर रोड चली आई। इस बात को दो महीने बीत चुके। अनिश्चितता में रहते चले जाना अब सहृ नहीं लग रहा। लिहाजा , आज सुबह 10:00 बजे शांति से बात निबटाने महेश से मिलने आई है।
बाहर से ही देखा, रात वाला कमीज-पजामा पहने महेश मेज पर बैठा नाश्ता कर रहा है।
" आओ-आओ", उसे देखते ही बोला," आज नाश्ते में देर हो गई ,रविवार जो ठहरा ।आओ बैठो।"
वह बैठ गई ।
"एक कप कॉफी तो बनाना। इस बिहारी को बनानी आती ही नहीं। कब से ढंग की कॉपी नहीं मिली।" महेश ने सहजता की भूमिका अदा की।
उसने बिहारी को आवाज देकर ताजा गर्म पानी मंगवाया और एक कप कॉफी फेंटकर तैयार कर दी।
" अरे तुम भी लो ना ।"महेश ने कहा।
"नहीं, मैं लेकर आई हूॅं।"
"तो क्या हुआ? साथ देने को लो ना, एक कप।"
उसने प्याली में कॉफी घोली और चुपचाप पीने लगी।
"मम्मी डैडी कैसे हैं?" मैंने पूछा।
"अच्छे हैं।"
"मिनी-कणु ने ज्यादा तंग तो नहीं किया?"
"नहीं।"
"बढ़िया बनी है कॉफी। एक कप और डालना।"
बिना सूत्र की परवाह किए महेश अपनी भूमिका निभाता जा रहा है। कमरे में शांति है। काही रंग के पर्दे बाहर की तीव्र प्रकाश को अंदर आने से रोक रहे हैं। पिछले वर्ष उसने लगाए थे हैंडलूम हाउस से खरीदकर ।यहां बैठकर कॉफी पीना भला लग रहा है।
कॉफी समाप्त करके महेश ने कहा , "चलो, बाहर बाग में बैठे।"
" नहीं, नहीं, उसने एकदम कहा, " ड्राइंगरूम में चलो, बाहर धूप बहुत तेज है।"
वह बाग में नहीं जाना चाहती । बहुत तबीयत से लगाया था उसने। बहुत मेहनत की थी। उसे बागवानी का शौक है और महेश को भी।इस वक्त वह वहां नहीं बैठना चाहती।
"जैसा तुम चाहो", महेश ने कहा और ड्राइंग रूम की तरफ मुड़ गया। वहां पहुंच , उसने सिगरेट जला ली और सोफे पर बैठ गया।
वह कुछ दूर कुर्सी पर बैठ गई और फौरन कहने लगी, " महेश मेरा निर्णय बदला नहीं है। मैं चाहती हूं ,हम दोनों मिलकर बच्चों के बारे में तय कर ले।"
महेश निश्चल बैठा रहा। उसने देखा , वह सिगरेट पी नहीं रहा , बस हाथ में पकड़े बैठा है और वह धीरे-धीरे जलती जा रही है। सायास उसकी तरफ से नजर हटाकर वह बोली , "बच्चे अभी छोटे हैं, उन्हें मेरी देखभाल की जरूरत है। अगर तुम ठीक समझो तो अभी कुछ वर्ष मेरे पास रहने दो, फिर जैसा तुम चाहो। मैं उन्हें चाहती जरूर हूं , पर तुम्हें दु:ख नहीं देना चाहती ।"
"दु:ख !" महेश ने कहा और हल्के से हंस दिया।
उसकी हंसी ने उसे भीतर तक झकझोर दिया।
" मैं जानती हूं, मैं तुम्हें दु:ख दे रही हूं पर... पर... मैं मजबूर हूॅं।" उसने कहा तो उसका स्वर विचलित हो उठा।
कुछ देर चुप्पी रही।
उसने देखा , उसकी कुर्सी के पास नीचे थी तिपाई पर वही फूलदान रखा है जिसमें जाने से कुछ दिन पहले उसने सरपत की फलियां और पत्तियां सुखाकर सजा दी थी। फलियां अधिक पकी पकी मालूम पड़ रही है। अब तक उन्हें बदल डालना चाहिए था, उसने सोचा।
"उसने मुझे कभी प्यार नहीं किया ?" उसने सुना, महेश कह रहा है।
"क्यों नहीं किया ?" चौककर उसने कहा।
उसका हाथ सरपत की फली पर लग गया और वह फट गई। भीतर से रुई की तरह सफेद सफेद रोएं निकलकर हवा में तैरने लगी।
"जरूर किया है, अब भी करती हूं," उसने कहा, "पर ..पर...यह कुछ और है ।मेरे जीवन में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मैं जानती ही नहीं थी, प्यार किसे कहते हैं। ओह महेश, तुम नहीं समझ सकते । मैं मर चुकी हूं और दुबारा जन्म लिया है। तुम मेरी मौत का दु:ख करो, पुनर्जन्म भगवान के हाथ है ," कहते कहते उसका मुख प्रदीप्त हो उठा, होंठ फड़फड़ाने लगे। उसे लगा, आसपास उड़ रहे रुई के रोयों की तरह वह भी आजाद है।
महेश की आंखें उसके फड़फड़ाते ओठों पर टिक गई।
"हम भी कभी साथ जन्मे और मरे थे, शुरू-शुरू में, नहीं?" उसने इतनी धीरे से कहा कि लगा महेश ने नहीं कहा ,उसने स्वयं सोचा है।
"सब कुछ था, महेश", उसने कहा, " तुम सब कुछ थे, पर यह कुछ और ही है। मैं नहीं जानती, क्या करूं ।बस यह कामना जरूर कर सकती हैं कि भगवान तुम्हें भी यह वरदान दे।"
महेश ने हार मान ली।
वह सोफे पर ढह-सा गया।
वह उठकर उसके पास आ गई और बोली, " ज्यादा दु:ख मत करना।
महेश फिर हल्के से हंस दिया।
वह तड़प उठी ।
उसके दोनों हाथ थामकर रुंधे कंठ से बोली, "महेश, मैं नहीं जानती यह कैसे हो गया। मैंने नहीं चाहा था, मैंने सब प्यार तुम्हें दिया था पर... पर..."
महेश ने एक लंबी सांस खींचकर कहा, "मैं जीवन में सर्वथा असफल रहा। बेकार!"
" नहीं, ऐसा मत सोचो । इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है । तुम सब कुछ थे, हो। मैंने तुमसे पाया ही पाया है। यह तो भाग्य है या फिर मेरीश्घं कृतघ्नता।"
महेश चुप रहा।
"मैं तुम्हें इस तरह दु:खी नहीं देख सकती , "करुणा से पिघलकर उसने कहा , और सोफे पर बैठ , उसका सिर अपनी छाती पर खींचकर धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलाने लगी।
" मुझे माफ करो, "उसने फिर कहा और अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिए। उसका हृदय समुद्र समान हो रहा है- विशाल, अथहा और शांत ।बहुत स्नेह है वहां, बहुत दया। वह उसे दुलारती गई, प्यार करती गई। उसके शरीर का एक-एक अंग उसका जाना पहचाना है। लज्जा या दिखावा बाकी नहीं है और न है आखेट की गंध।
कुछ देर में महेश का शरीर कठोर बना रहा, फिर पिघलने लगा। वे एक झिलमिलाते पर्दे के पीछे सच्चाई से छिप गई। अहम को खोकर आदि-पुरुष और आदि- नारी में बदल गए । उसके पास देने को जो भी है, वह उसे दे देना चाहती है ,जो भी स्नेह बाकी है ,जितनी करुणा वह संजो सकती है । जब एक शरीर हुए, तब भी वह यही सोचती रही - महेश, दुख मत करना- मेरा बेचारा प्यार महेश.... तुम भी सुखी हो सको, मेरी तरह सुखी...। वह फौरन उठकर बाथरूम में चली गई । लगा, धो देने से ही सब कुछ भूल जाएगा। पानी डालते-डालते उसने सोचा, यह तो सर्दी से ठिठुरते भिखारी पर दुबारा डाल देने जैसी बात हुई । जाना तो मुझे है ही।......