खुद की पहचान
उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को एक प्रसिद्ध ऋषि के पास पढ़ने भेजा। श्वेतकेतु की दृष्टि में उसके पिता उद्दालक बहुत बड़े विद्वान थे । वह चाहता था कि वह अपने पिता से ही शिक्षा ग्रहण करें , लेकिन उद्दालक ने समझाया, " गुरु पिता से ऊपर होता है इसलिए तूम्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के पास ही जाना चाहिए।"श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां 12 वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि वह अपने पिता उद्दालक से भी अधिक ज्ञानी हो गया है । उसकी व्यवहार में अहं अधिक और नम्रता कम थी। विद्वान उद्दालक श्वेतकेतु की मनोवृति को भांप गए। उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा," श्वेतकेतु, तुमने क्या क्या पढ़ा? हमें भी बताओ।"
श्वेतकेतु बोला," मैंने व्यवहार पढ़ा, शास्त्र पढ़ा, उपनिषदों को पढ़ा।" इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी । सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा, "श्वेतकेतु! क्या तुमने वह पढ़ा जिसको पढ़ने के बाद और कुछ पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता ? क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए ही नहीं रहता ? क्या तुमने बात सुना जिसको सुनने के बाद और सुनने के लिए कुछ नहीं बचता?"
यह सुनकर श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया । उद्दालक आगे बोले," जाओ फिर से अपने गुरुजी के पास जाओ। उनसे कहो कि वह तुम्हें सिखाएं ।" श्वेतकेतु गुरु के पास गया । गुरुजी बोले, " वह तुम्हारे पिताजी के पास ही है, उनसे ही लो।" श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था । उसका अहं खत्म हो गया था । व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था।एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा , "श्वेतकेतु! वह तुम हो।" श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।