कुछ क्षण बाद उन्हें चिंता सताने लगी की इक्कीस पीढ़ी आते-आते धन खत्म होने लगेगा ,अगली पीढ़ी के उत्तराधिकारी काम कैसे चलाएंगे? बेबात की इस चिंता ने धर्मपरायण सेठ के मन को उद्वेलित कर डाला। उन्हें रात भर नींद नहीं आई ।सवेरे पत्नी से चिंता की मुद्रा में उन्होंने कहा , "इक्कीसवीं पीढ़ी के बाद की पीढ़ी का क्या होगा ?उसके लिए धन कहां से आएगा?"
सेठानी बहुत समझदार और परम भक्त -हृदय थी। सेठ की बात सुनकर वह बोली ,"आप बेकार की चिंता में फंस गए हैं। हम पर अनिष्ट की आशंका मंडरा रही है। मैं दान- पुण्य कर इसे दूर करने का प्रयास करती हूॅं। पंडित लोकपति जी पहुंचे हुए ब्राह्मण है ।मैं उन्हें भोजन के लिए बुलाने जाती हूं।"
सेठानी ने ब्राह्मण के घर पहुंच कर उनसे प्रार्थना की कि हमारे घर भोजन करने चलें। ब्राह्मण परम तपस्वी थे। वह बोले ,"आज का भोजन तो मुझे प्राप्त हो चुका है। "
यह सुनकर सेठानी बोली, "कल का निमंत्रण स्वीकार कर ले।"
ब्राह्मण ने कहा , "मैं कल की चिंता आज नहीं करता।"
जब सेठानी ने सेठ को ब्राह्मण किया सोच बताइए तो उसे अपनी चिंता छोड़ने और धन एकत्रित करने की सीमा का बोध हुआ।